Tuesday, September 13, 2011

DOST (FRIEND) - HINDI POEM

मेरी हमदम/मेरी दोस्त


ऐ मेरी हमदम/मेरी दोस्त
तुम मेरी धड़कन
तुम ही मेरी प्रीत हो
तुम ही मेरी सांसों का संगीत हो।

तुम मेरी आस
तुम ही मेरी प्यास
तुम ही मेरा विश्वास हो
तुम मेरी प्रेरणा
तुम ही मेरा अस्तित्व
तुम ही मेरा संसार हो
तुम मेरी सोच


तुम ही मेरी कश्ती का साहिल
तुम ही मेरी कल्पना का विस्तार हो
तुम मेरी आस
तुम ही मेरी प्यास
तुम ही मेरा  विश्वास हो

तुम मेरी गंगा
तुम ही मेरी संजीवनी
तुम ही मेरे जीवन का सार हो

तुम मेरी परेशानियों का हल
तुम ही ज़ख्मों की मरहम
तुम ही मेरे हर सवाल का जवाब हो
तुम मेरी स्वर्णिम सुरभि
तुम ही मेरी चंदा
तुम ही मेरी आकाशगंगा हो

तुम मेरी पूजा
तुम ही मेरी आराधना
तुम ही मेरे प्राण हो
तुम ही मेरे लिए ईश्वर
 का वरदान हो, ईश्वर का वरदान हो।

AUPCHARIKTA (FORMALITY) -HINDI POEM

ओैपचारिकता

बहुत दिनों के बाद
जब कभी मैं
तन्हा रह पाता हूॅं
तब/ अपने आप से
स्वयं से
बात करने का
मौका मिलता है मुझे
सोचता हूॅं
कि यह संसार
एैसा क्यों है ?
इतना दिखावटी
इतना -झूठा
इतना औपचारिक
अपनत्व से दूर
यथार्थ से बिल्कुल परे।
यहाॅं
छुपे बैठे हैं लोग
मुखौटे ओढ़े़े
छुपा है यथार्थ
सिमटा लिया है सबने
स्वयं को
अपने में ।
सिकुड़ गया है
सिमट गया है
अपनापन/मनुष्यता
सब कुछ।
शायद शहर में
मनुष्य/ मनुष्य कम
शहरी मशीन अधिक हो गया है।
आज
मनुष्यता गौण हो गई है
‘शहरी‘ औपचारिकता
प्रधान है
उठने की/बैठने की
स्वागत की/सर हिलाने की
जी हां /जी हां करने की
‘शहरी‘ होने की
और इस सब में
मनुष्य पता नहीं कहां
खो गया है...।
किंतु
जीवित है
जारी है
सर्वत्र
यह नाटक
उपरी दिखावा
पाखंड
एक औपचारिकता मात्र                                                   मंतव्य -स दिखावा
सतही हो गया है मनुष्य
स्वयं अपने आप में
अंदर ही अंदर घुट रहा है
दोगलेपन से
और
इस क्रम में
शायद
अपने आपको ही
छल रहा है आदमी ... ।

A PRAYER (EK PRARTHANA) - POEM

एक प्रार्थना
इंसान
यह जानता हेै
कि जो भी इस लोक में आया है
उसका अंत होना है. एक न एक दिन।
इसलिए
अगर वह जन्मा है
तो उसकी भी मृत्यु
अवश्य होनी है।
इसीलिए शायद
इसे मृत्युलोक भी कहा गया हेै।
मानव को उत्पन्न हुए
सैंकड़ो  हज़ारो सदियां हुईं
फिर भी वह
इस विधि इस कटु सत्य को
समझ नहीं पाया है
इसे आत्मसात नहीं कर पाया है।
यह लोक
माया/स्वप्न /भन्वर के समान हेै
और मानव उसमें डूबता ही है
फंसता ही है.हमेशा ।
कई बार
सच्चाईयां/यथार्थ उसे कचोटता है
अंतरातमाए चीत्कार कर उठती है
विवेक बारम्बार झंझोड़ता है
कि जो तुम देख रहे हो
यह सत्य नहीं है
यह एक स्वप्नजाल है /माया है मृगतृष्णा है
किंतु मानवमन
अंतरद्वंद्व में .झूलता है
स्वीकृति और अस्वीकृति
आशा और निराशा
स्वप्न और यथार्थ के बीच।
छटपटाता है
इस द्वंद्व  से निकलने के लिए
इसे स्वीकार करता है
फिर स्वयं ही इसे नकार देता है।
वह अपने से ही
यानि सत्य से दूर भागना चाहता है
मुंह छिपाए
आज भी साहस नहीं जुटा पाता है
आईना देखने का।
हर सफलता में खुश हो जाता है
उत्सव मनाता है
असफलता से /गम से/मृत्यु से
होता है.निराश /दुखी /भयभीत।
रोते हैं लोग
क्योंकि वह इसके सिवाय
कुछ कर भी नहीं सकते।
रोना उनकी मजबूरी है
उनकी आवश्यकता है
स्वयं को भ्रमजाल में
उलझाए रखने की
वह जानता है
यह कुछ भी सत्य नहीं
शाश्वत नहीं।
यह संसार
धोखा है /थोथा है
और यह सुख.दुख
उपज है.उसके अपने मन की।
शायद वह अंधेरे में पड़ी रस्सी को
सर्प समझ बैठा है।
अपनी अपनी समझ है
अपना अपना दृष्टिकोण
किसी के लिए है.रोना।
तो किसी अन्य के लिए है . रो . ना।
इसका कारण
अज्ञानता !
हे मेरे अन्तर्मन
उठो जागो
अब इस दीर्घ निद्रा को तोड़ दो
समय की पुकार सुनों
शून्य से निकलकर परम में आओ
खोजो/तलाशो/पहचानो
स्वयं को ।
खोजो अपने अंदर
तलाशो भीतर
पहचानो स्वयं को
स्व का मिलन ही
सत्य का मिलन है
इस
अनुभूति के पश्चात
सब द्वंद्वए अंतरविरोध
क्षीण हो जाते हैं।
स्वयं आलोकित होओ
और
अज्ञान के तिमिर में
भटकते छटपटाते लोगों को
दीप्त ज्ञान की रश्मि से
आलोकित आनंदित कर दो।
सभी ओर प्रकाश का उल्लास हो
और हमसब इसमें समाकर
एक हो जाएं
यही मेरी कामना है
यही प्रार्थना है