ओैपचारिकता
बहुत दिनों के बादजब कभी मैंतन्हा रह पाता हूॅंतब/ अपने आप सेस्वयं सेबात करने कामौका मिलता है मुझेसोचता हूॅंकि यह संसारएैसा क्यों है ?इतना दिखावटीइतना -झूठाइतना औपचारिकअपनत्व से दूरयथार्थ से बिल्कुल परे।यहाॅंछुपे बैठे हैं लोगमुखौटे ओढ़े़ेछुपा है यथार्थसिमटा लिया है सबनेस्वयं कोअपने में ।सिकुड़ गया हैसिमट गया हैअपनापन/मनुष्यतासब कुछ।शायद शहर मेंमनुष्य/ मनुष्य कमशहरी मशीन अधिक हो गया है।आजमनुष्यता गौण हो गई है‘शहरी‘ औपचारिकताप्रधान हैउठने की/बैठने कीस्वागत की/सर हिलाने कीजी हां /जी हां करने की‘शहरी‘ होने कीऔर इस सब मेंमनुष्य पता नहीं कहांखो गया है...।किंतुजीवित हैजारी हैसर्वत्रयह नाटकउपरी दिखावापाखंडएक औपचारिकता मात्र मंतव्य -बस दिखावा।
सतही हो गया है मनुष्यस्वयं अपने आप मेंअंदर ही अंदर घुट रहा हैदोगलेपन सेऔरइस क्रम मेंशायदअपने आपको हीछल रहा है आदमी ... ।
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