Tuesday, September 13, 2011

AUPCHARIKTA (FORMALITY) -HINDI POEM

ओैपचारिकता

बहुत दिनों के बाद
जब कभी मैं
तन्हा रह पाता हूॅं
तब/ अपने आप से
स्वयं से
बात करने का
मौका मिलता है मुझे
सोचता हूॅं
कि यह संसार
एैसा क्यों है ?
इतना दिखावटी
इतना -झूठा
इतना औपचारिक
अपनत्व से दूर
यथार्थ से बिल्कुल परे।
यहाॅं
छुपे बैठे हैं लोग
मुखौटे ओढ़े़े
छुपा है यथार्थ
सिमटा लिया है सबने
स्वयं को
अपने में ।
सिकुड़ गया है
सिमट गया है
अपनापन/मनुष्यता
सब कुछ।
शायद शहर में
मनुष्य/ मनुष्य कम
शहरी मशीन अधिक हो गया है।
आज
मनुष्यता गौण हो गई है
‘शहरी‘ औपचारिकता
प्रधान है
उठने की/बैठने की
स्वागत की/सर हिलाने की
जी हां /जी हां करने की
‘शहरी‘ होने की
और इस सब में
मनुष्य पता नहीं कहां
खो गया है...।
किंतु
जीवित है
जारी है
सर्वत्र
यह नाटक
उपरी दिखावा
पाखंड
एक औपचारिकता मात्र                                                   मंतव्य -स दिखावा
सतही हो गया है मनुष्य
स्वयं अपने आप में
अंदर ही अंदर घुट रहा है
दोगलेपन से
और
इस क्रम में
शायद
अपने आपको ही
छल रहा है आदमी ... ।

No comments:

Post a Comment