एक प्रार्थनाइंसानयह जानता हेैकि जो भी इस लोक में आया हैउसका अंत होना है. एक न एक दिन।इसलिएअगर वह जन्मा हैतो उसकी भी मृत्युअवश्य होनी है।इसीलिए शायदइसे मृत्युलोक भी कहा गया हेै।मानव को उत्पन्न हुएसैंकड़ो हज़ारो सदियां हुईंफिर भी वहइस विधि इस कटु सत्य कोसमझ नहीं पाया हैइसे आत्मसात नहीं कर पाया है।यह लोकमाया/स्वप्न /भन्वर के समान हेैऔर मानव उसमें डूबता ही हैफंसता ही है.हमेशा ।कई बारसच्चाईयां/यथार्थ उसे कचोटता हैअंतरातमाए चीत्कार कर उठती हैविवेक बारम्बार झंझोड़ता हैकि जो तुम देख रहे होयह सत्य नहीं हैयह एक स्वप्नजाल है /माया है मृगतृष्णा हैकिंतु मानवमनअंतरद्वंद्व में .झूलता हैस्वीकृति और अस्वीकृतिआशा और निराशास्वप्न और यथार्थ के बीच।छटपटाता हैइस द्वंद्व से निकलने के लिएइसे स्वीकार करता हैफिर स्वयं ही इसे नकार देता है।वह अपने से हीयानि सत्य से दूर भागना चाहता हैमुंह छिपाएआज भी साहस नहीं जुटा पाता हैआईना देखने का।हर सफलता में खुश हो जाता हैउत्सव मनाता हैअसफलता से /गम से/मृत्यु सेहोता है.निराश /दुखी /भयभीत।रोते हैं लोगक्योंकि वह इसके सिवायकुछ कर भी नहीं सकते।रोना उनकी मजबूरी हैउनकी आवश्यकता हैस्वयं को भ्रमजाल मेंउलझाए रखने कीवह जानता हैयह कुछ भी सत्य नहींशाश्वत नहीं।यह संसारधोखा है /थोथा हैऔर यह सुख.दुखउपज है.उसके अपने मन की।शायद वह अंधेरे में पड़ी रस्सी कोसर्प समझ बैठा है।अपनी अपनी समझ हैअपना अपना दृष्टिकोणकिसी के लिए है.रोना।तो किसी अन्य के लिए है . रो . ना।इसका कारणअज्ञानता !हे मेरे अन्तर्मनउठो जागोअब इस दीर्घ निद्रा को तोड़ दोसमय की पुकार सुनोंशून्य से निकलकर परम में आओखोजो/तलाशो/पहचानोस्वयं को ।खोजो अपने अंदरतलाशो भीतरपहचानो स्वयं कोस्व का मिलन हीसत्य का मिलन हैइसअनुभूति के पश्चातसब द्वंद्वए अंतरविरोधक्षीण हो जाते हैं।स्वयं आलोकित होओऔरअज्ञान के तिमिर मेंभटकते छटपटाते लोगों कोदीप्त ज्ञान की रश्मि सेआलोकित आनंदित कर दो।सभी ओर प्रकाश का उल्लास होऔर हमसब इसमें समाकरएक हो जाएंयही मेरी कामना हैयही प्रार्थना है
Tuesday, September 13, 2011
A PRAYER (EK PRARTHANA) - POEM
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